सोमवार, 31 अगस्त 2015

राष्ट्रीय कृषि विकास परियोजना के साथ जोड़ेंगे कीट ज्ञान की मुहिम : डॉ. बराड़

 कहा, कीटों पर हुए शोध पर बनाई जाए डाक्यूमेंटरी 
कपास की फसलों के नुकसान का अवलोकन करने के लिए कृषि विभाग के अतिरिक्त निदेशक ने किया जींद का दौरा 
नरेंद्र कुंडू
जींद। जिले में सफेद मक्खी के प्रकोप के कारण खराब हो रही किसानों की कपास की फसलों का अवलोकन करने के लिए कृषि विभाग के अतिरिक्त निदेशक डॉ. जगदीप बराड़ मंगलवार को जींद पहुंचे। इस दौरान डॉ. बराड़ ने कृषि विभाग के अधिकारियों के साथ जिले के रधाना, शादीपुर, किनाना, ईंटल कलां, ईंटल खुर्द, राजपुरा सहित दर्जनभर गांवों का दौरा कर किसानों की फसलों का अवलोकन किया। रधाना गांव में किसानों की फसलों का अवलोकन करने के साथ ही डॉ. बराड़ कीटाचार्य किसानों से भी रूबरू हुए। इस दौरान कीटाचार्य किसानों ने अतिरिक्त निदेशक के साथ अपने अनुभव सांझा करते हुए बताया कि किस तरह वह पिछले सात-आठ वर्षों से बिना कीटनाशकों का प्रयोग किए अच्छा उत्पादन ले रहे हैं। किसानों द्वारा कीटों पर किए गए शोध की बारिकी से जानकारी लेने के बाद अतिरिक्त निदेशक ने कीटाचार्य किसानों को राष्ट्रीय कृषि विकास परियोजना के तहत जोड़कर कीट ज्ञान की मुहिम को प्रदेश में फैलाने का आश्वासन दिया। इस मौके पर उनके साथ जिला कृषि उपनिदेशक डॉ. रामप्रताप सिहाग, पौध संरक्षण अधिकारी डॉ. अनिल नरवाल, एडीओ डॉ. सुनील, डॉ. महेंद्र, मैडम कुसुम दलाल भी मौजूद थी।
डॉ. बराड़ ने कहा कि पूरे प्रदेश में कपास की फसल में सफेद मक्खी का प्रकोप काफी बढ़ रहा है। इसके चलते किसानों की कपास की फसल खराब हो रही है। डॉ. बराड़ ने कहा कि कपास की फसम में सफेद मक्खी के प्रकोप के बढऩे का मुख्य कारण किसानों में जागरूकता की कमी है। जागरूकता के अभाव में किसान बिना कृषि अधिकारियों की सलाह के फसल में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। उन्होंने बताया कि
अतिरिक्त निदेशक को कीटों की जानकारी देती कीटाचार्या महिला किसान
जहां-जहां कीटनाशकों का प्रयोग ना के बराबर हुआ है, वहां-वहां सफेद मक्खी का प्रकोप नहीं है। जींद जिले में डॉ. सुरेंद्र दलाल द्वारा शुरू की गई कीट ज्ञान की मुहिम की प्रशांसा करते हुए उन्होंने कहा कि जींद के कीटाचार्य किसानों द्वारा कीटों पर किए गए इस अनोखे शोध के अब कृषि विभाग के अधिकारी भी मुरीद हो गए हैं लेकिन यह कृषि विभाग का दुर्भाग्य रहा है कि विभाग इन किसानों का सार्थक रूप से प्रयोग नहीं कर पाया। इसलिए कीट ज्ञान की मुहिम को प्रदेश के प्रत्येक किसान तक पहुंचाने के लिए कीटाचार्य किसानों को राष्ट्रीय कृषि विकास परियोजना के तहत जोड़कर इनकी सहायता से दूसरे जिले के किसानों को भी कीटनाशक रहित खेती के प्रति जागरूक किया जाएगा। इस दौरान डॉ. बराड़ ने किसानों की कीटनाशक रहित फसलों का अवलोकन भी किया और बताया कि कीटनाशक के प्रयोग वाली फसलों उनकी फसल काफी बेहतर है। इस अवसर पर डॉ. बराड़ ने कृषि विभाग के अधिकारियों को अगले रबी के सीजन से कीटाचार्य किसानों के शोध पर एक डाक्यूमेंटरी बनाने के निर्देश दिए। कीटाचार्य किसानों ने भी अतिरिक्त निदेशक को इस मुहिम को आगे बढ़ाने के सुझाव रखे।

सोमवार, 24 अगस्त 2015

'व्हाइट फ्लाई के प्रकोप से काला पडऩे लगा किसानों का सफेद सोना'

पिछले वर्ष हुई प्राकृतिक आपदा के बाद अब सफेद मक्खी ने मचाई तबाही
खराब हो रही कपास की फसलों पर किसान चला रहे ट्रेक्टर 

नरेंद्र कुंडू 
जींद। पिछले वर्ष प्राकृतिक आपदा के कारण खराब हुई खरीफ व रबी की फसलों से हुए आर्थिक नुकसान से किसान अभी तक ठीक से उभर भी नहीं पाए थे कि इस बार फिर से किसानों की कपास की फसल सफेद मक्खी (व्हाइट फ्लाई) की भेंट चढ़ गई है। महज तीन मिलीमीटर का यह कीट किसानों के सफेद सोने का भस्मासुर साबित हो रहा है। दिन-प्रतिदिन कपास की फसल पर सफेद मक्खी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। सफेद मक्खी ने किसानों के साथ-साथ कृषि विभाग के अधिकारियों की भी नींद उड़ा रखी है। कृषि विभाग के अधिकारी भी इस कीट का तोड़ नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं। जिले में लगभग 15 हजार हैक्टेयर कपास की फसल सफेद मक्खी की भेंट चढ़कर खराब हो चुकी है। सफेद मक्खी के प्रकोप से अपनी कपास की फसल को बचाने के लिए किसान महंगे से महंगे कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन महंगे-महंगे कीटनाशक भी इस पर बेअसर साबित हो रहे हैं। सफेद मक्खी के बढ़ते प्रकोप के कारण किसान अपनी खड़ी कपास की फसल को ट्रैक्टर से नष्ट करने पर मजबूर हैं लेकिन जिन किसानों द्वारा फसलों में कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया गया है, वहां पर कपास की फसल में सफेद मक्खी का प्रकोप बहुत कम है।   
 कपास की फसल को ट्रेक्टर से जोतते किसान।

15 हजार हैक्टेयर चढ़ चुका है सफेद मक्खी की भेंट  

जिले में लगभग ६३ हजार हैक्टेयर में कपास की खेती होती है। उचाना, नरवाना, जुलाना क्षेत्र में कपास की खेती पर किसानों का ज्यादा जोर है लेकिन कपास की फसल में आई सफेद मक्खी ने किसानों की फसलों को बुरी तरह से तबाह कर दिया है। सफेद मक्ख के प्रकोप के कारण 15 हजार हैक्टेयर में खड़ी कपास की फसल बुरी तरह से नष्ट हो गई है।  

2001 में अमेरिकन सूंडी और 2005 में मिलीबग ने मचाई थी तबाही

जब-जब भी कीटनाशकों की सहायता से कीटों को नियंत्रित करने के प्रयास किये गए हैं, तब-तब यह कीट बेकाबू हुए हैं। वर्ष 2001 में अमेरिकन सूंडी तथा 2005 में मिलीबग द्वारा मचाई गई तबाही इसका प्रमाण हैं। 2001 में अमेरिकन सूंडी को काबू करने के लिए किसानों ने कपास की फसलों में 30 से 40 स्प्रे किए थे लेकिन उसके बाद भी यह कीट काबू नहीं हुआ और परिणाम शून्य रहे। इस तीन सेंटीमीटर के कीट ने पूरी की पूरी फसलों को तबाह कर दिया था। यही हालात 2005 में किसानों के सामने पैदा हुए थे। 2005 में मिलीबग को नियंत्रित करने के लिए फसलों में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग किया गया था लेकिन महज चार सेंटीमीटर के इस कीट ने उस दौरान कीट वैज्ञानिकों की खूब फजिहत करवाई थी। मिलीबग से प्रकोपित फसलों को किसानों ने टे्रक्टर की सहायता से खेत जोत दिए थे। इसी प्रकार अब पिछले दो-तीन वर्षों से कपास की फसल में सफेद मक्खी का प्रकोप बढ़ रहा है। 

सफेद मक्खी को नियंत्रित करने में कूदरती कीटनाशी हैं कारगर 

सफेद मक्खी के प्रौढ़ का जीवन काल 20 से 25 दिन का होता है और यह अपने जीवनकाल में 100 से 125 अंडे देती है। यह पौधे से रस चूसती है। सफेद मक्खी के पेशाब में शुगर होता है। जिस भी पत्ते पर सफेद मक्खी का पेशाब पड़ता है उस पत्ते पर फफूंद लग जाती है और वह पत्ता काला हो जाता है और भोजन बनाना बंद कर देता है। इस कीट को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशक की जरूरत नहीं है। इनो, इरो, बीटल नामक मांसाहारी कीट सफेद मक्खी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। यह मांसाहारी कीट खुद ही इसे नियंत्रित कर लेते हैं। जिस-जिस खेत में कीटनाशक का प्रयोग नहीं हुआ है, उन खेतों में सफेद मक्खी का प्रकोप नहीं है लेकिन जहां-जहां कीटनाशकों का प्रयोग किया गया है, वहां-वहां इसका प्रकोप ज्यादा बढ़ रहा है। फसल में मौजूद मांसाहारी कीट इसे खुद ही नियंत्रित कर लेते हैं। किसानों को कीटों को मारने की नहीं, कीटों की पहचान करने की जरूरत है। 
रणबीर मलिक, कीटाचार्य किसान
जींद।  

पछेती बिजाई वाली फसलों में ज्यादा नुकसान है। 

पछेती बिजाई वाली फसलों में ज्यादा नुकसान है। जिन किसानों ने समय पर कपास की बिजाई की है, वहां पर कम नुकसान है। कुछ किसानों का फसल की बिजाई व रख-रखाव की मैनेजमेंट सही नहीं है। मैनेजमेंट सिस्टम गड़बड़ाने के कारण फसल में नुकसान होता है। जहां-जहां नुकसान हुआ है, वहां-वहां सर्वे करवाया जा रहा है। सर्वे रिपोर्ट के बाद हकीकत सामने आ पाएगी। किसानों को जागरूक करने के लिए कैंपों का आयोजन किया जा रहा है। किसानों को चाहिए कि फसल में कीटनाशकों का ज्यादा प्रयोग नहीं करें। कीटनाशकों के ज्यादा प्रयोग के कारण भी सफेद मक्खी को पनपे का अवसर मिल जाता है। 
डॉ. आरपी सिहाग, जिला कृषि उपनिदेशक
कृषि विभाग जींद


रविवार, 23 अगस्त 2015

कीटनाशकों के प्रयोग से ही फसल में बढ़ती है कीटों की संख्या

नरेंद्र कुंडू
बरवाला/जींद।
कीटों की मास्टरनी सीता देवी, शांति, धनवंति व नारों ने बताया कि जहां-जहां कपास की फसल में कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग कर छेडख़ानी की गई है, उन-उन खेतों में कीटों की संख्या निरंतर बढ़ रही है लेकिन जहां पर कीटों के साथ कोई छेडख़ानी नहीं की गई है, वहां कीटों की संख्या नुकसान पहुंचाने के आर्थिक स्तर (ईटीएल लेवल) से काफी नीचे है। कीटों की मास्टरनियां शनिवार को अमर उजाला फाउंडेशन द्वारा जेवरा गांव में आयोजित महिला किसान खेत पाठशाला में मौजूद महिला तथा पुरुष किसानों को फसल में मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों के बारे में अवगत करवा रही थी। इस अवसर पर पाठशाला में आकाशवाणी केंद्र रोहतक से कार्यक्रम अधिकारी नरेश गोगिया, वरिष्ठ उद्घोषक संपूर्ण सिंह, हिसार के जिला बागवानी अधिकारी डॉ. बलजीत भ्याण, डॉ. महाबीर शर्मा भी विशेष रूप से मौजूद रहे। पाठशाला के आरंभ में महिला किसानों ने कपास तथा सब्जियों की फसल में कीटों का निरक्षण किया और उसके बाद फसल में मौजूद कीटों के आंकड़े को चार्ट पर उतारा।
 फसल में मौजूद कीटों का अवलोकन करती महिलाएं।
उन्होंने बताया कि कीटों की सबसे खास बात यह होती है कि उन्हें आने वाले खतरे का पहले ही अहसास हो जाता है और वह खतरे को देखते हुए अपने जीवन काल को छोटा करके अपने बच्चे पैदा करने कर क्षमता को बढ़ा लेता है। इसलिए कीटनाशकों के माध्यम से कीटों पर नियंत्रित पाना संभव नहीं है। यदि हमें अपनी फसलों को कीटों से बचाना है तो हमें कीटनाशकों का प्रयोग करने की बजाए कीटों की पहचान करनी चाहिए। क्योंकि कीट की कीटों को नियंत्रित करने का एक अचूक अस्त्र हैं।

मरोडिये से प्रकोपित पौधे को दें पर्याप्त खुराक

मास्टर ट्रेनर किसानों ने बताया कि मरोडिय़ा (लीपकरल) विषाणु से फैलता है और विषाणु न तो जीवित होता है और न ही कभी मरता है। इस विषाणु को अनुकूल मौसम मिलने पर यह जीवित हो जाता है। इस विषाणु के प्रभाव को रोकने के लिए आज तक कोई दवाई नहीं बनी है। यदि हम मरोडिय़े से प्रकोपित पौधे को काट कर जला भी देते हैं तो भी उसकी जड़ों में यह वायरस बच जाता है। इससे पार पाने का केवल एक ही उपाय है कि हम मरोडिय़े से प्रकोपित फसल में जिंक, यूरिया व डीएपी के घाल का फोलियर स्प्रे करते रहें। इससे पौधे को पर्याप्त खुराक मिलती रहेगी और इससे उत्पादन में भी कोई कमी नहीं आएगी।

फसल में मौजूद प्रति पत्ता कीटों की संख्या

फसल का नाम        सफेद मक्खी    हरा तेला    चूरड़ा       माइट
बीटी कॉटन                     5.4                  0.9            0            2.4
नॉन बीटी कॉटन              4.3                   0.4          0            1.2
भिंडी                               2.4                   3.1          0              6
करेला                                 0                     0          0               2
 

आकाशवाणी केंद्र रोहतक के वरिष्ठ उद्घोषक संपूर्ण सिंह डॉ बलजीत भ्यान से बातचीत करते हुए





रविवार, 9 अगस्त 2015

शाकाहारी कीटों के साथ भी होता है पौधे का गहरा रिश्ता

कीटों को मारने की नहीं उनको पहचानने तथा उनके क्रियाकलापों को समझने की जरूरत 

नरेंद्र कुंडू 
बरवाला/जींद। शाकाहारी कीटों के साथ भी पौधों का गहरा रिश्ता है। पौधे अपनी जरूरत के अनुसार समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार की गंध छोड़कर शाकाहारी कीटों को अपनी सुरक्षा के लिए बुलाते हैं। इसलिए हमें कीटों को मारने की नहीं बल्कि कीटों को पहचानने की जरूरत है। यह बात कीटाचार्या किसान विजय, प्रमिला, कमल, आशीम, शकुंतला ने शनिवार को बरवाला के जेवरा गांव में अमर उजाला फाउंडेशन द्वारा सब्जियों की फसल पर आयोजित की जा रही महिला किसान खेत पाठशाला को संबोधित करते हुए कही। पाठशाला में हिसार के जिला बागवानी अधिकारी डॉ. बलजीत भ्यान भी मौजूद रहे। पाठशाला के आरंभ में महिला किसानों द्वारा ग्रुप बनाकर करेला, मिर्च, बैंगन, भिंडी, घीया की बेल पर मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों की पहचान कर उनके क्रियाकलापों के बारे में किसानों को बारिकी से जानकारी दी गई। 
मास्टर ट्रेनर महिला किसानों ने बताया कि किसानों को भय व भ्रम के जाल में फंसाया जा रहा है। इसी के चलते शाकाहारी कीटों के डर से किसान फसलों पर अंधाधुंध पेस्टीसाइड का प्रयोग करते हैं। जबकि हकीकत यह है कि कीटों को मारने की नहीं उनको पहचानने तथा उनके क्रियाकलापों को समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पौधा एक दिन में साढ़े चार ग्राम भोजन बनाता है। डेढ़ ग्राम भोजन ऊपर के हिस्से, डेढ़ ग्राम भोजन जड़ व तने को देता है जबकि डेढ़ ग्राम भोजन को रिजर्व के तौर पर रखता है। ताकि मुसिबत के समय में 
फसल में कीटों का अवलोकन करती महिलाएं। 
रिजर्व भोजन का प्रयोग कर पौधा अपना जीवन बचा सके लेकिन अगर पौधे पर किसी तरह की मुसिबत नहीं आती है तो उसके पास वह भोजन जमा हो जाता है। एकत्रित किए गए इस भोजन को निकालने के लिए ही पौधा भिन्न-भिन्न प्रकार की गंध छोड़कर शाकाहारी कीटों को बुलाता है और शाकाहारी कीट इस अतिरिक्त भोजन को खाकर अपना गुजारा करते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में रक्तदान करता है। उसी प्रकार पौधे भी अपने इस अतिरिक्त भोजन को शाकाहारी कीटों को दान करते हैं। जब शाकाहारी कीटों की संख्या बढऩे लग जाती है तो इन्हें नियंत्रित करने के लिए पौधे मांसाहारी कीटों को बुलाते हैं। मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर पौधे के लिए कुदरती कीटनाशी का काम करते हैं। पौधे व कीटों की इस प्रक्रिया में किसान का काम चल जाता है। उन्होंने बताया कि सब्जियों में इस समय सफेद मक्खी, तेला व माइट देखने को मिल रहे हैं। जबकि इन्हें नियंत्रित करने के लिए मांसाहारी कीट बीटल, बीटल के बच्चे, क्राइसोपा, ड्रेगन फ्लाई, हथजोड़ा, कातिल बुगड़ा भी काफी संख्या में मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि भिंडी में तेला ईटीएल लेवल से पार पहुंच चुका है और इसके चलते भिंडी में महज पांच प्रतिशत का नुकसान ही देखने को मिल रहा है। इसके अलावा दूसरी सब्जियों में कीटों की संख्या ईटीएल लेवल से कम ही दर्ज की गई है। किसी भी फसल में शाकाहारी कीट नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं हैं। उन्होंने बताया कि बैंगन की सब्जी में गोभ वाली सूंडी आई हुई है लेकिन इससे फसल पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा है। गोभवाली सूंडी के आने के बाद पौधा दूसरी फूट निकाल लेता है। इसलिए किसानों को इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। 

चार्ट पर कीटों का आंकड़ा तैयार करती मास्टर ट्रेनर किसान। 




रविवार, 2 अगस्त 2015

कीटनाशकों से शाकाहारी कीटों के साथ मर जाते हैं कुदरती कीटनाशी

कपास के साथ-साथ सब्जियों पर भी शुरू हुआ प्रयोग 
कीट ज्ञान हासिल करने के लिए पंजाब से भी पहुंचे किसान 

नरेंद्र कुंडू 
बरवाला/जींद। आज कपास की फसल में रस चूसक कीट सफेद मक्खी का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है। सफेद मक्खी के बढ़ते प्रकोप से किसान बुरी तरह से भयभीत हैं। क्योंकि सफेद मक्खी को काबू करने में कीटनाशक भी बेअसर साबित हो रहे हैं। यह बात कीटों की मास्टरनी राजवंती, कमलेश, बिमला, रोशनी व सुमन ने शनिवार को जेवरा गांव में आयोजित महिला किसान खेत पाठशाला में किसानों को संबोधित करते हुए कही। पाठशाला में कीटों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए बरवाला व आस-पास के सैंकडों किसानों के अलावा नूरमहल जालंधर से गुरप्रीत, चैनलाल, सरपंच लखविंद्र ने भी शिरकत की। पाठशाला में मौजूद किसानों ने सब्जियों व कपास की फसल में मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों का अवलोकन किया। किसानों को कीटों के जीवन चक्र व क्रियाकलापों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। 
मास्टर ट्रेनर महिला किसानों ने बताया कि फसल में अंधाधुंध कीटनाशकों के प्रयोग के कारण शाकाहारी कीट सफेद का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि किसानों द्वारा सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए जिस कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है, उस कीटनाशक से सफेद मक्खी के साथ-साथ उसे नियंत्रित करने के लिए उसके पेट में पल रहे दूसरे मांसाहारी कीट भी मर जाते हैं। उन्होंने कहा कि प्राकृति ने एक चैन सिस्टम बनाया हुआ है लेकिन मनुष्य ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर इस चैन सिस्टम को तोड़ दिया है और इसी के कारण यह परेशानी आज किसानों के सामने आ रही है। पौधा अपनी जरूरत के अनुसार ही शाकाहारी कीटों को बुलाता है लेकिन उसके साथ ही शाकाहारी कीटों को नियंत्रित करने के लिए मांसाहारी कीटों को भी बुला लेता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए इनो व इरो नामक परपेटिया मांसाहारी कीट फसल में मौजूद होते हैं। इनो व इरो सफेद मक्खी के पेट में अपने अंडे देते हैं। इनो व इरो का अंडा, बच्चा व प्यूपा तीन ही प्रक्रिया सफेद मक्खी के पेट में होती हैं। प्रौढ़ बनने के बाद यह सफेद मक्खी के पेट से बाहर आती है लेकिन जब किसान सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशक का प्रयोग करता है तो सफेद मक्खी के साथ-साथ उसके पेट में पल रहे इन मांसाहारी कीटों की तीनों स्टेज खत्म हो जाती है। सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किए गए कीटना
 पाठशाला में मौजूद महिलाएं। 
शक से सफेद मक्खी तो मुश्किल से 50 प्रतिशत ही खत्म होती है लेकिन उसके पेट में पल रहे मांसाहारी कीट इनो-इरो की तो तीनों स्टेज खत्म हो जाती हैं। इसलिए किसान सफेद मक्खी को नियंत्रित करने के लिए जहर डालने की बजाए पौधों को खुराक देने का काम करना चाहिए। ताकि सफेद मक्खी द्वारा पौधे का जो रस चूसा गया है उस खुराक से पौधा उसकी रिकवरी कर सके। महिला किसानों ने बताया कि इस बार यह देखने में आया है कि सफेद मक्खी का प्रकोप नॉन बीटी हाईब्रिड व देशी कपास की बजाए बीटी कपास में ज्यादा है। उन्होंने बताया कि  भिंडी, घीया, मिर्च व बैंगन की सब्जियों पर भी उनका प्रयोग चल रहा है। इनमें भिंडी की फसल में हरेतेले की संख्या ज्यादा है लेकिन इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इन्हें नियंत्रित करने के लिए मकड़ी, क्राइसोपा, इनो-इरो, अंगीरा हथजोड़ा, दैत्यामक्खी, डाकू बुगड़ा पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। पंजाब से आए किसानों ने बताया कि दिव्य ज्योतिग्राम के नाम से उनकी संस्था है और यह संस्था लगभग 200 एकड़ में बिना पेस्टीसाइड की खेती कर रही है। यहां पर उनका आने का उद्देश्य कीटों के बारे में प्रशिक्षण हासिल करना था ताकि वह वहां के दूसरे किसानों को भी इसके बारे में प्रशिक्षित कर सकें। 


 सब्जी के पौधों पर कीटों की पहचान करती महिलाएं।